इधर भी आएँ कभी धूप के सताए हुए शजर खड़े हैं सर-ए-राह सर झुकाए हुए कुछ और बात करो गर्दिश-ए-जहाँ के सिवा न वाक़िआ'त सुनाओ सुने-सुनाए हुए ज़मीं पे ढेर किए दोपहर के सूरज ने तमाम फूल शब-ए-माह के खिलाए हुए धुआँ धुआँ हैं वो चेहरे भी अब न जाने क्यूँ मिरे लिए थे कभी जिन पे रंग आए हुए कुछ और हो कि न हो ज़ाद-ए-राह मंज़िल-ए-शब सहर के ख़्वाब तो आँखों में हैं सजाए हुए खुली फ़ज़ा से कोई वास्ता न था जब तक हम अपने-आप में ख़ुद को रहे छुपाए हुए हवा की ज़द पे जब आए तो बुझ गए 'ख़ावर' वो सब चराग़ जो मेरे न थे जलाए हुए