इक निगाह उस जानिब थोड़ी दूर पानी पर तैरते हैं कुछ लाशे फिर हुज़ूर पानी पर कश्तियाँ फ़ना कर के जा छुपे कहीं तूफ़ाँ जान फेंके जाते हैं बे-क़ुसूर पानी पर मुझ को तिश्ना-कामी ने फ़त्ह-याबियाँ बख़्शीं और मेरे दुश्मन को था ग़ुरूर पानी पर अनगिनत सफ़ीनों में दीप जगमगाते हैं रात ने लुटाया है रंग-ओ-नूर पानी पर जिस को आख़िर-ए-शब का हम-सफ़र बताया है देखिए वो फ़रमाए कब ज़ुहूर पानी पर यूँ 'अक़ील' बिखरी हैं आफ़्ताब की किरनें जैसे हों कुछ आईने चूर-चूर पानी पर