पूरा न शब-ए-ग़म का कभी सिलसिला हुआ वक़्त-ए-सहर उठा मैं दुआ माँगता हुआ हर हर नफ़स में लफ़्ज़-ए-मोहब्बत ज़बाँ पे है मुझ में न जाने कौन है ये बोलता हुआ पाया नहीं किसी ने भी ये राज़-ए-काएनात एक शख़्स खो गया है ख़ुदा ढूँढता हुआ उस से छुपा न पाएगा तू अपना हाल-ए-दिल आँखों का आईना है अभी बोलता हुआ बीमार था तो पूछने आए नहीं मिज़ाज मय्यत पे आज उस की है मेला लगा हुआ कल चौदहवीं की रात भी 'अर्पित' तमाम रात भटका हूँ अपने आप को मैं ढूँढता हुआ