इक तू ही नहीं नासिया-फ़रसा मिरे आगे हर शख़्स है महरूम-ए-तमन्ना मिरे आगे ऐ ज़ीस्त तुझे याद हैं अंदाज़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ जब ज़रा-ए-सहरा भी था सहरा मिरे आगे वो दौर कि दरिया भी था इक क़तरा-ए-बे-आब अब क़तरा-ए-बे-आब है दरिया मिरे आगे ऐ दावर-ए-महशर वो घड़ी याद है तुझ को जब लाया गया मेरा सरापा मिरे आगे रोता है मिरा जज़्बा-ए-दिल देख के मजनूँ बे-पर्दा चली आती है लैला मिरे आगे लिक्खा है तिरा नाम समुंदर पे हवा ने ऐ दोस्त न कर उस का यूँ चर्चा मिरे आगे यूसुफ़ तो है कनआन में पाबंद-ए-सलासिल शीशे में उतरती है ज़ुलेख़ा मेरे आगे ऐ आह अगर छोड़ दूँ मैं ज़ब्त का दामन उड़ने लगे ख़ाक-ए-रुख़-ए-सहरा मिरे आगे बुलबुल का लहू कूचा-ए-क़ातिल में बहा यूँ जैसे हो कोई मौजा-ए-दरिया मिरे आगे अफ़सोस हुआ बंद सनम-ख़ाना-ए-आज़र नासेह न सुना आ के ये मुज़्दा मिरे आगे वो फ़ित्ना-ए-महशर है मगर मोहर-ब-लब है जैसे हो कोई मोम की गुड़िया मिरे आगे ज़ाहिद के लिए खोल दे मयख़ाने का दर आज बिस्मिल सा तड़पता है ये प्यासा मिरे आगे तासीर न होती जो मिरी चश्म-ए-फ़ुसूँ में शीशे सा न साक़ी कभी गिरता मिरे आगे ख़ुश-बख़्त था वो दौर 'मुज़फ़्फ़र' कि चमन में टूटा न कभी शाख़ से ग़ुंचा मिरे आगे