मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम तेरी आँखों से टपका है आँसू बन कर मेरा ग़म दिल को नाज़ है सुलझाव पर लेकिन मैं ने देखा है सुलझाने से और उलझा है तेरी ज़ुल्फ़ का इक इक ख़म दिन के बोलते हंगामे में अक्सर सोया रहता है करवट ले कर जाग उठता है रात की चुप में तेरा ग़म हिज्र के सँवलाए लम्हों में आस भी तन्हा छोड़ गई किस से पूछूँ कौन बताए रात हुई है कितनी कम तेरी धुन में तुझ से भी शायद आगे जा निकला हूँ मैं तेरे पहलू में बैठा हूँ फिर भी आँखें हैं पुर-नम तेरा ग़म हम दीवानों को किस आलम में छोड़ गया एक ज़माना हम से ख़फ़ा है एक जहाँ से हम बरहम