इक वो भी दिन थे डरते थे जब तीरगी से हम घबरा रहे हैं आज बहुत रौशनी से हम जीने की दे रहा है दुआ चारागर हमें मायूस हो गए हैं ग़म-ए-ज़िंदगी से हम अच्छा हुआ कि तू ने हमें अब भुला दिया तंग आ गए थे यार तिरी दोस्ती से हम ये ज़िंदगी है या कि मुसलसल अज़ाब है दो-चार दिन गुज़ार न पाए ख़ुशी से हम पल भर में उल्फ़तें हैं तो पल भर में नफ़रतें कैसे निभाएँ हुस्न की बाज़ीगरी से हम उम्मीद थी कि दे के सदा तुम बुलाओगे गुज़रे थे बार बार तुम्हारी गली से हम वैसे हमारे आगे मसाइल हज़ार-हा हँस हँस के मिल रहे हैं मगर हर किसी से हम मरने का ऐ 'जमाल' हमें डर हो किस लिए आए थे कब जहाँ में कुछ अपनी ख़ुशी से हम