इमारत हो कि ग़ुर्बत बोलती है ब-हर-सूरत शराफ़त बोलती है वहाँ बाज़ार का होता है मंज़र जहाँ घर की ज़रूरत बोलती है ज़बाँ ख़ामोश ही रहती है लेकिन मिरे चेहरे की रंगत बोलती है ब-ज़ाहिर गुफ़्तुगू है मुख़्लिसाना मगर दिल में कुदूरत बोलती है वो पत्थर मोम बन जाए न कैसे कि सर चढ़ के मोहब्बत बोलती है ज़बान-ए-इल्म पर ताले पड़े हैं ब-ज़ो'म-ए-ख़ुद जहालत बोलती है ज़बानें काट दी जाती हैं फिर भी रग-ओ-पै से मोहब्बत बोलती है 'वली' की ज़िंदगी आईना-सूरत सदाक़त ही सदाक़त बोलती है