इम्तिहाँ अपने जफ़ा-कश का उसे मंज़ूर था वर्ना मैं नज़दीक था फ़ुर्क़त में क्या कुछ दूर था पूछे है आशिक़ की अपनी देख कर तुर्बत को क्या कशतगान-ए-इशक़ से ये भी कोई मग़्फ़ूर था मुद्दआ' था हम से भड़काना उसे बातें सुना ख़ैर-ख़्वाही का हमारी उस में क्या मज़कूर था मरते-मरते अब्र को हरगिज़ न मुँह चढ़ने दिया आफ़रीं ऐ चश्म-ए-तर तेरा ही ये मक़्दूर था मय-परस्तों ने तिरे यूँ भी न जाना कौन है शैख़ गो शैतान से ज़्यादा यहाँ मशहूर था तीरा-बख़्तान-ए-असीर-ए-ज़ुल्फ़ की अपने न पूछ रोज़-ओ-शब याँ एक है दिन भी शब-ए-दीजूर था बे-क़रारी दिल की ले आई गली में तेरी यार उस को हाथों क्या करूँ नाचार था मजबूर था वस्ल में भी हाए अपने जी की जी में ही रही कुछ न कहने पाए 'फ़िद्वी' वो नशे में चूर था