जौर तेरा हमें उठाना था ये भी इक मौत का ठिकाना था दिल ही ज़ुल्फ़ों के पेच में आया और ऐसा कोई दिवाना था वस्ल महशर पे क्यों रखा मौक़ूफ़ ये तो क़िस्सा यहीं चुकाना था चहचहे अब कहाँ रहे बुलबुल ख़ुशी का और ही ज़माना था बेवफ़ा तुझ से पूरी पड़नी थी हम ने आगे ही तुझ को जाना था वक़्त-ए-रुख़्सत जो मरते-मरते बचे इतने दिन और रंज पाना था जिए थे हिज्र के लिए 'फ़िद्वी' यूँ ख़ुदा को हमें दिखाना था