जिगर को देख के ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं मिरे अज़ीज़ मिरे चारागर को देखते हैं पड़ी है सामने जैसे किसी अज़ीज़ की लाश हम इस नज़र से दिल-ए-बे-ख़बर को देखते हैं कटेंगी मौत के हाथों ये बेड़ियाँ इक दिन इस एक आस को और उम्र भर को देखते हैं गुज़र रही है असीरान-ए-बद-नसीब की यूँ कभी क़फ़स को कभी बाल-ओ-पर को देखते हैं फिर आ के हसरतें दम तोड़ती हैं ख़्वाब में क्या उदास दिल जो हम इतना सहर को देखते हैं सितम-कशों को ये क्या ख़ूब चुप की दाद मिली जब आँख खुलती है तुर्बत से घर को देखते हैं अजल को देख के सूझा मआल हस्ती का सहर को देख के शम-ए-सहर को देखते हैं खुला है अब के है हस्ती का एक नाम गुनाह तबाह-हाली-ए-अहल-ए-हुनर को देखते हैं पहुँच के मंज़िल-ए-हस्ती पे होश उड़े 'बेख़ुद' कि राहज़न था जो अब राहबर को देखते हैं