आइने कहते हैं इस ख़्वाब को रुस्वा न करो ऐसे खोए हुए अंदाज़ से देखा न करो कैसे आ जाती है कोंपल पे ये जादू की लकीर दिन गुज़र जाते हैं महसूस करो या न करो कहीं दीवार-ए-क़यामत कभी ज़ंजीर-ए-अज़ल क्या करो इश्क़-ए-ज़ियाँ-ए-केश में और क्या न करो भागते जाओ किसी सम्त किसी साए से तज़्किरा एक है अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो फिर कोई ताज़ा घरौंदा किसी वीराने में गाँव को शहर करो शहर को वीराना करो बज़्म-ए-इम्काँ हुई दो घूँट लहू आँखों में हिर्स कहती है कि कौनैन को पैमाना करो क्यूँ न हो मुझ से शिकायत तुम्हीं तुम वो हो कि फिर उसे जीता भी न छोड़ो जिसे दीवाना करो एक ही रात सही फूल तो खुलते हैं 'ख़िज़ाँ' मौत में क्या है कि जीने की तमन्ना न करो