इस धूप से क्या गिला है मुझ को साए ने जला दिया है मुझ को मैं नाला-ए-सुकूत संग का हूँ सहरा ने बहुत सुना है मुझ को मैं लफ़्ज़ की तरह बे-ज़बाँ था मा'नी ने अदा किया है मुझ को हर सच का नसीब संग-सारी और सच ही से वास्ता है मुझ को ख़ाइफ़ नहीं मर्ग-ए-ना-गहाँ से सीने का वो हौसला है मुझ को पत्थर पे मिरी सदा का साया आईना दिखा रहा है मुझ को आवाज़ दे मुझ को तीरगी में आवाज़ ही नक़्श-ए-पा है मुझ को