इस लम्हा-ए-वीरान में चुप चाँद नज़र चुप इक रात की हैरत में गिरफ़्तार नगर चुप किस क़त्ल में मतलूब हुए शहर को हम लोग क्यों करने लगे अपनी गुज़र और बसर चुप कुछ और अभी बोल अभी और भी कुछ कह क्यों लब पे वही मोहर-सिफ़त बार-ए-दिगर चुप मैं साहिल दरिया से खड़ी देख रही हूँ साकिन है हर इक लहर तो हर एक भँवर चुप किस गहरे अंधेरे के तज़ब्ज़ुब में घिरी हूँ ख़ामोश है दीवार यक़ीं वहम का दर चुप