इस शहर-ए-संग-ए-सख़्त से घबरा गया हूँ मैं जंगल की ख़ुशबुओं की तरफ़ जा रहा हूँ मैं मंज़र को देख देख के आँखें चली गईं हाथों से आज अपना बदन ढूँढता हूँ मैं चिल्ला रहा है कोई मेरे लम्स के लिए अँधियारी वादियों से निकल भागता हूँ मैं क़ातिल के हाथ में कोई तलवार है न तेग़ वो मुस्कुरा रहा है मरा जा रहा हूँ मैं मुझ को वो मेरे दिल के एवज़ दे सकेंगे क्या 'मामून' दुनिया वालों से क्या माँगता हूँ मैं