इस वास्ते कि दिल है मुसलसल अज़ाब में हम पी रहे हैं ज़हर मिला कर शराब में मदहोश इस क़दर हूँ शब-ए-माहताब में डूबे हुए हैं जैब-ओ-गरेबाँ शराब में ऐ काश उन को फिर तिरी आवाज़ मिल सके नग़्मे तड़प रहे हैं जो मेरे रबाब में वो शख़्स था कभी जो रग-ए-जाँ से भी क़रीब अब वो किसी ख़याल में है और न ख़्वाब में कुछ अक़्ल-ओ-होश-ओ-फ़हम-ओ-फ़िरासत में खो गए कुछ दोस्त ख़ुद को ढूँड रहे हैं शराब में क्यों मुझ पे मेहरबाँ है ग़म-ए-ज़ीस्त इन दिनों क्या ऐसी बात है मिरे हाल-ए-ख़राब में इक पुख़्ता-तब्अ' रिंद-ए-ख़राबात है 'कँवल' वाइज़ जो चाहे ऐब निकालें शराब में