इश्क़ कब अपने मक़ासिद का निगहबाँ न हुआ कौन सा ग़म है जो आख़िर ग़म-ए-जानाँ न हुआ लाख चाहा मगर अफ़्सोस कि आँसू न थमे ज़ब्त-ए-ग़म मुझ से ब-क़द्र-ए-ग़म पिन्हाँ न हुआ तेरी इशरत है कि गर्दूं के दबाए न दबी मेरा ग़म है कि हँसी में भी नुमायाँ न हुआ ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-मौत कोई ग़म भी तो हरीफ़-ए-ग़म-ए-जानाँ न हुआ ज़र्रे ज़र्रे से ये ऐलान-ए-परेशानी है मुतमइन ख़ाक वो होगा जो परेशाँ न हुआ जिस के दामन से है वाबस्ता मिरा ज़ौक़-ए-हयात वो भी काफ़िर मिरे मेआ'र का इंसाँ न हुआ मैं रहा गरचे हर एहसास पे मसरूफ़-ए-सुजूद कोई सज्दा भी तिरी शान के शायाँ न हुआ बर्फ़-ज़ार-ज़र-ओ-दौलत का हर अफ़्सुर्दा ज़मीर ज़मज़मों से मिरे कब शो'ला-ब-दामाँ न हुआ बर्क़ नाकाम मह-ओ-मेहर कवाकिब मायूस न हुआ मेरे नशेमन में चराग़ाँ न हुआ मेरे तख़्लीक़-ए-अदब में है क़सीदा मादूम मुझ से 'एहसान' किसी वक़्त ये इस्याँ न हुआ