इश्क़ की आसूदगी को और क्या दरकार था गेसुओं की छाँव थी या साया-ए-दीवार था दर-हक़ीक़त वो क़रीब-ए-जल्वा-गाह-ए-यार था जिस की आँखों में मज़ाक़-ए-हसरत-ए-दीदार था आज वो क्यों खा रहा है दर-ब-दर की ठोकरें तख़्त-ए-आलम का जो कल तक मालिक-ओ-मुख़्तार था मावरा-ए-ऐश था जब आदमिय्यत का वजूद किस क़दर बे-दाग़ वो आईना-ए-किरदार था ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा की क़ुव्वत सल्ब हो कर रह गई जल्वा-गाह-ए-नाज़ पर क्या पर्दा-ए-असरार था ता-क़यामत जिस के नक़्श-ए-पा रहेंगे ज़ौ-फ़िशाँ फ़ख़्र है हम को वो अपना क़ाफ़िला-सालार था मग़्फ़िरत फ़रमाए मौला 'सादिक़'-ए-मरहूम की वो मिरा उस्ताद 'अनवर' इक बड़ा फ़नकार था