इश्क़ की कोई अगर सीख ले गर मुझ से तमीज़ दीन-दुनिया में हुआ अपने परायों को अज़ीज़ या हो शागिर्द मिरा या मुझे तल्मीज़ करे वर्ना इस कूचा-ए-उश्शाक़ से कर जावे गुरेज़ मकतब-ए-इश्क़ से ना-ख़्वांदा उठा जो महरूम दोनो आलम में वो कुछ चीज़ नहीं है नाचीज़ मर्द क्यूँकर कहूँ बे-इश्क़ जो होवे कोई फ़िरक़ा उश्शाक़ में उस के तईं कहते हैं कनीज़ मैं ने उस्ताद-ए-अज़ल से यही सीखा था सबक़ 'आफ़रीदी' न कभी यार की छोड़ूँ दहलीज़