इश्क़ क्या क्या आफ़तें लाता रहा आख़िर अब दूरी में जी जाता रहा मेहर ओ मह गुल फूल सब थे पर हमें चेहरई चेहरा ही वो भाता रहा दिल हुआ कब इश्क़ की रह का दलील मैं तो ख़ुद गुम ही उसे पाता रहा मुँह दिखाता बरसों वो ख़ुश-रू नहीं चाह का यूँ कब तलक नाता रहा कुछ न मैं समझा जुनून ओ इश्क़ में देर नासेह मुझ को समझाता रहा दाग़ था जो सर पे मेरे शम्अ साँ पाँव तक मुझ को वही खाता रहा कैसे कैसे रुक गए हैं 'मीर' हम मुद्दतों मुँह तक जिगर आता रहा