इश्क़ ने तेरे न जाने क्या तमाशा कर दिया एक क़तरा था मैं लेकिन मुझ को दरिया कर दिया जब जुनूँ मेरा बढ़ा तो उस ने ऐसा कर दिया उन को शर्मिंदा किया और मुझ को रुस्वा कर दिया इश्क़ मेरा छुप नहीं सकता छुपाने से मिरे आँसुओं ने ख़ूब बह कर इस को इफ़्शा कर दिया एक जल्वा जो कभी तू ने दिखाया था मुझे तेरे इस जल्वे ही ने महव-ए-तमाशा कर दिया कौन-सी थी वो ख़ता जिस की मुझे दी ये सज़ा बज़्म से तू ने उठा कर मुझ को रुस्वा कर दिया अब तलाश-ए-चारागर मैं क्यों करूँ और किस लिए दर्द ने अब तो मिरा ख़ुद ही मुदावा कर दिया क्या ज़रूरत है छुपाने की मिरे क़ातिल को अब ख़ून ने उस को ज़बाँ से आश्कारा कर दिया मैं बहुत मम्नून-ए-एहसाँ हूँ 'अज़ीज़' इस इश्क़ का जिस ने मेरे क़ल्ब को हुस्न-ए-मुजल्ला कर दिया