इश्क़ उस को मुझ से है या था कभी मर के भी मैं जान न पाया कभी फ़िक्र मुझ से पूछती है रात-दिन नींद है फिर क्यों नहीं सोता कभी दाएरों के दाएरे है सब जगह दायरा भी ख़ुश नहीं होगा कभी काटने पर साँप के कुछ न हुआ डाँटने पर उस के मैं रोया कभी वक़्त मुझ को हर दफ़ा पकड़े रखा वक़्त को मैं न पकड़ पाया कभी बूँद ही बाक़ी बची है इश्क़ की बह रहा होता था इक झरना कभी आज भी 'आनंद' हँस कर ही मिला दर्द उस का कम नहीं होगा कभी