इश्क़ की शम्अ करे दिल में फ़रोज़ाँ कोई फिर न हो तीरगी-ए-ज़ीस्त का सामाँ कोई लज़्ज़त-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ जो हो नादाँ कोई दूर दिल से न करे फिर ग़म-ए-जानाँ कोई रहा महरूम शहादत से भी मैं वाए-नसीब ज़ब्ह करने को गया भूल रग-ए-जाँ कोई रह के दुनिया में रहें दूर हम उस से क्यूँकर अपने साथी से जुदा होता है इंसाँ कोई चैन से सोया वही दूर जो दुनिया से रहा देख ले जा के ज़रा शहर-ए-ख़मोशाँ कोई एक क़तरा भी नहीं ख़ून का बाक़ी 'जौहर' कैसे देखे भरी आँखों को गुल-अफ़शाँ कोई