इश्क़ में कमतर हँसे और बेशतर रोया किए एक शब का लुत्फ़ बरसों याद कर रोया किए तार रोने का न टूटा अपने मातम-ख़ाना में मर गए जब हम हमारे नौहागर रोया किए रोने वालों पर था वाजिब आशिक़-ए-गिर्यां का उर्स हर बरस अब्र आ के मेरी ख़ाक पर रोया किए ज़ौक़ है रोने से याँ तक वस्ल की शब में भी हम यार के पाँव पे रख कर अपना सर रोया किए तौर ये बिगड़ा है उस की बज़्म का इक दम को हम वाँ गए थे आ के पहरों अपने घर रोया किए ख़ल्क़ को पर्दा-नशीं के इश्क़ का शुबहा हुआ आँख पर अक्सर जो हम रूमाल धर रोया किए अपने रोने पर जो रहम आया उसे हम और भी उस के दिखलाने को मल-मल चश्म-ए-तर रोया किए इश्क़ में तासीर गर रखता है कुछ अब्र-ए-सफ़ेद हम अबस ख़ून-ए-दिल-ओ-लख़्त-ए-जिगर रोया किए उन के दीवानों को भी क्या ज़ब्त है औक़ात का दो पहर हँसते रहे गर दो पहर रोया किए रोने में कल रात ग़फ़लत इस क़दर तारी हुई यार आ कर फिर गया हम बे-ख़बर रोया किए कुछ हमीं गिर्यां नहीं हैं दूरी-ए-अहबाब से हश्र तक इस ग़म में सब जिन्न-ओ-बशर रोया किए दिल के जाने का 'शहीदी' हादिसा ऐसा नहीं कुछ न रोए आह अगर हम उम्र-भर रोया किए