इश्क़ रूठा है कभी हुस्न से बद-ज़न हो कर

इश्क़ रूठा है कभी हुस्न से बद-ज़न हो कर
दाग़-ए-दिल और भड़क उठते हैं रौशन हो कर

दैर में भी है वही और हरम में भी वही
बैर क्यों शैख़ से है तुझ को बरहमन हो कर

घुप अँधेरों में हुए मुझ से गुनह जो सरज़द
सामने आ खड़े हैं वो मिरे दर्पन हो कर

सदमे जो तेरी जफ़ाओं के उभर आए हैं
दिल में वो आज चमक उट्ठे हैं रौशन हो कर

अब तो जीना भी है दुश्वार ग़म-ए-फ़ुर्क़त में
मुझ को दिल भी न नज़र आया नशेमन हो कर

बद-नसीबी की कोई हद भी हुआ करती है
बन गया कुंज-ए-क़फ़स दश्त का दामन हो कर

आसमानों में जो मंडलाती नज़र आती हैं
बिजलियाँ उतरेंगी वो बर्क़-ए-नशेमन हो कर

मैं ने दुश्मन को कभी समझा न दुश्मन लेकिन
आप तो और हसीं बन गए दुश्मन हो कर

ढूँड आया हूँ मैं हर-क़र्या-ओ-हर-शहर 'रफ़ीक़'
कोई वादी न मिली वादी-ए-ऐमन हो कर


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