मज़ाहिब में हुस्न-ए-शरीअ'त नहीं है किसी के भी दिल में मुरव्वत नहीं है तिरे नाज़ ख़ामोश रह कर उठा लें वो पहली सी अपनी भी हालत नहीं है लगाया गले मौत को दर न छोड़ा ख़ता ये नहीं है ये ग़फ़लत नहीं है भला कैसे तोड़ूँ मैं रिश्ता बुतों से मिलेगा ख़ुदा ऐसी क़िस्मत नहीं है सितमगर है वो और वो बेवफ़ा है ये कह दूँ उसे मुझ में जुरअत नहीं है वही छोड़ जाने का हैं नाम लेते कि जिन के लिए दहर जन्नत नहीं है हो दिल में तिरे ज़ो'म पैदा कि जिस से अभी मैं ने मानी वो मिन्नत नहीं है नहीं उस की आदत यक़ीं लाए मुझ पर क़सम खाना मेरी भी फ़ितरत नहीं है 'रफ़ीक़' उठ गई है जहाँ से मोहब्बत किसी के भी दिल में मोहब्बत नहीं है