कुछ मुक़द्दर ही बुरा है बुलबुल-ए-नाशाद का डर कभी बिजली का रहता है कभी सय्याद का ग़म नहीं दिल हो गया बर्बाद मुझ बर्बाद का मश्ग़ला जाता रहा ज़ालिम तिरी बेदाद का हाल तो देखे कोई मुझ ख़ानमाँ-बर्बाद का मैं नशेमन को भी घर समझा किया सय्याद का अब वही मैं हूँ कि अपनी भी ख़बर रखता नहीं और कभी मम्नून रहता था किसी की याद का ऐ ख़ुदा-ए-इश्क़ मुझ को ऐसी वहशत कर अता भूल जाएँ वाक़िआ' अहल-ए-जहाँ फ़रहाद का क्यों करम-आमेज़ नज़रों से मुझे तकते हो तुम इम्तिहाँ मद्द-ए-नज़र है क्या दिल-ए-बर्बाद का क्या अजब है 'आरज़ू' भी जान अब दे दे अगर आसरा अब तक तो था इस को तुम्हारी याद का