इज़्तिराब-ए-दिल-ए-बीमार से डर लगता है नब्ज़ की सुरअत-ए-रफ़्तार से डर लगता है हुस्न के इश्वा-ए-तर्रार से डर लगता है लग़्ज़िश-ए-फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार से डर लगता है मंज़िल-ए-हश्र बहुत दूर सही पर अब भी पुर्सिश-ए-बख़्त-ए-सियहकार से डर लगता है इक अलमनाक फ़साना है जुनून-ए-उल्फ़त जिस की तफ़्सीर के इज़हार से डर लगता है जादा-ए-होश से हट जाएँ न मय-कश के क़दम जाम की गर्मी-ए-रफ़्तार से डर लगता है या तो नामूस-ए-मोहब्बत पे था मरना बर-हक़ या तो ज़िक्र-ए-रसन-ओ-दार से डर लगता है रुख़ बदल दे न मोहब्बत का ये आशुफ़्ता-सरी ए'तिबार-ए-निगह-ए-यार से डर लगता है ये अक़ीदत ही कहीं दरपय-ए-आज़ार न हो शर्फ़-ए-पा-बोसी-ए-अग़्यार से डर लगता है तोड़ डालें न कहीं आप मिरा शीशा-ए-दिल आप की शूमी-ए-गुफ़्तार से डर लगता है ग़म-ओ-आलाम से इस दर्जा सरासीमा हूँ कि मुझे अक्स-ए-रुख़-ए-यार से डर लगता है भूल जाऊँ न कहीं अपनी ही हस्ती का मक़ाम आप की चश्म-ए-फ़ुसूँ-बार से डर लगता है बद-गुमानी हुई इस दर्जा दख़ील-ए-फ़ितरत उन को अब साया-ए-दीवार से डर लगता है फिर बरअंगेख़्ता हो जाएँ न जज़्बात-ए-निहाँ शो'ला-सामानी-ए-रुख़्सार से डर लगता है बाहमी रब्त में बन जाए न हद्द-ए-फ़ासिल इख़्तिलाफ़ात की दीवार से डर लगता है कुछ तो बदले हुए हालात से वहशत है 'अज़ीम' कुछ तो बिगड़े हुए आसार से डर लगता है