जान दे कर भी कुछ भला न हुआ यूँ भी हक़ ज़ीस्त का अदा न हुआ फ़र्ज़ था आशिक़ी में मर जाना हम से तय ये भी मरहला न हुआ ये भी आईन-ए-इश्क़ था या'नी उन से मैं तालिब-ए-वफ़ा न हुआ था ज़ियाँ ही ज़ियाँ मोहब्बत में हुस्न-ए-तमकीं से फ़ाएदा न हुआ ज़िंदगी बे-सबात थी 'असलम' हक़ मोहब्बत का कुछ अदा न हुआ