जान जाती है मिरी उन को ख़बर कुछ भी नहीं तुझ में ओ नाला-ए-जाँ-सोज़ असर कुछ भी नहीं तेग़-ए-अबरू वो दिखा कर यही फ़रमाते हैं उस के आगे जो न हो सीना-सिपर कुछ भी नहीं हालत-ए-नज़्अ' में तुम आए हो क्यूँकर देखूँ नूर आँखों में अब ऐ नूर-ए-नज़र कुछ भी नहीं गो ख़ताएँ नहीं हैं कुछ मिरी पर सब कुछ हैं ज़ुल्म-ओ-जौर आप के सब कुछ हैं मगर कुछ भी नहीं तप-ए-फ़ुर्क़त ने यहाँ अपना किया काम तमाम बे-ख़बर आज तलक तुझ को ख़बर कुछ भी नहीं रात-दिन उस रुख़-ओ-गेसू का तसव्वुर है मुझे मश्ग़ला इस के सिवा शाम-ओ-सहर कुछ भी नहीं आरज़ी हुस्न पे नाज़ाँ हैं अबस ये महवश रात भर नूर का आलम है सहर कुछ भी नहीं मंज़िल-ए-गोर में क्या देखिए हम पर गुज़रे ग़म-ए-इस्याँ के सिवा ज़ाद-ए-सफ़र कुछ भी नहीं क्यों यम-ए-अश्क में तू ने न डुबोया मुझ को आबरू अब तिरी ओ दीदा-ए-तर कुछ भी नहीं है बजा हेच जो समझे हैं उसे सब शाइ'र ग़ौर से देखते हैं तो वो कमर कुछ भी नहीं आलम-ए-ख़्वाब में किस तरह जहाँ को समझूँ क्यों ये सब कुछ नज़र आता है अगर कुछ भी नहीं आशिक़ी कर के न फल पाओगे हरगिज़ 'वहबी' नख़्ल-ए-उल्फ़त में ब-जुज़ दाग़-ए-समर कुछ भी नहीं