जान निकली न कभी वस्ल का अरमाँ निकला By Ghazal << सनम का नूर देखा है ख़ुदा ... कुछ मीठा कुछ खारा-पन है >> जान निकली न कभी वस्ल का अरमाँ निकला दर्द का मेरे ज़माने में न दरमाँ निकला वक़्त पड़ता है तो हो जाते हैं अपने भी रक़ीब हिज्र में तार-ए-नफ़स रूह का सोहाँ निकला दिल के नालों से हैं दम बंद ख़ुश-इलहानों के सीना दाग़ों से मिरा रश्क-ए-गुलिस्ताँ निकला Share on: