जाने क्या कहते हुए सर्व समन गुज़रे हैं कैसे हालात से गुल ज़ेर-ए-चमन गुज़रे हैं अब बताओ कि मुलाक़ात भली या फ़ुर्क़त तुम पे ये हिज्र के लम्हे जो कठिन गुज़रे हैं चाँदनी रात में दो साए ब-सद-हुस्न-ए-ख़िराम इन दरख़्तों के तले महव-ए-सुख़न गुज़रे हैं उस पे ये नूर है देखोगे तो हैरत होगी चाँद पर आज तलक जितने गहन गुज़रे हैं जज़्बा-ए-शौक़ है भरपूर है और सच्चा है सारे सहराओं से दीवाने मगन गुज़रे हैं दौलत-ए-दर्द फ़क़त उस की इनायत ही नहीं और जानिब से भी कुछ रंज-ओ-मेहन गुज़रे हैं बद-गुमाँ लफ़्ज़ थे मश्कूक सदाएँ थीं 'नसीम' इस समाअ'त पे कुछ ऐसे भी सुख़न गुज़रे हैं