ज़ौक़-ए-सज्दा एक नक़्श-ए-कामराँ बनता गया आस्ताँ पर उन के मेरा आस्ताँ बनता गया बे-निशानी के सहारे पर निशाँ बनता गया ज़ामिन-ए-मंज़िल ग़ुबार-ए-कारवाँ बनता गया क़ुदरतन बर्बादियों की दास्ताँ बनता गया ख़ुद-बख़ुद बिजली की ज़द में आशियाँ बनता गया क्या ख़ता सय्याद की और बाग़बाँ का क्या क़ुसूर गुल्सिताँ में ख़ुद तू नंग-ए-गुलिस्ताँ बनता गया वा-ए-महरूमी-ए-उल्फ़त उन का ग़म भी तो नदीम बद-नसीबी से नसीब-ए-दुश्मनाँ बनता गया मुझ से क्या कहते हो अब दुनिया जो कहती है कहे तुम करम करते गए मैं दास्ताँ बनता गया हामिल-ए-ता'मीर थी तख़रीब-ए-पैहम ऐ 'शिफ़ा' आशियाँ मिट मिट के नक़्श-ए-आशियाँ बता गया