जब बाँटना ही अज़ाब ठहरा फिर कैसा हिसाब माँगते हो सब होंटों पे मोहर लग चुकी है अब किस से जवाब माँगते हो कलियों को मसल के अपने हाथों फूलों से शबाब माँगते हो हर लफ़्ज़ सलीब पर चढ़ा कर तुम कैसी किताब माँगते हो सब रौशनियों को छीन कर भी दीवानों से ख़्वाब माँगते हो फ़िरदौस-ए-बरीं में मिल सकेगी इस युग में शराब माँगते हो