जब भी फ़र्ज़ानों के हमराह चले हैं हम लोग ठोकरें खा के हर इक बार गिरे हैं हम लोग मस्लहत वक़्त की कुछ इस में रही है शायद चलते चलते जो सर-ए-राह रुके हैं हम लोग क़ाफ़िले कितने ही गुज़रे हैं इधर से फिर भी गर्द की तरह सर-ए-राह सजे हैं हम लोग सिर्फ़ कुछ देर तिरी बज़्म में हँसने के लिए सैंकड़ों बार जले और बुझे हैं हम लोग मोम की तरह पिघल जाते हैं आसानी से जाने किस तर्ज़ के साँचे में ढले हैं हम लोग आज सन्नाटा है दरिया में हर इक सम्त मगर जाने क्या सोच के साहिल पे खड़े हैं हम लोग मौसम-ए-ऐश हो या रंज का आलम हो 'कमाल' या'नी हर हाल में ख़ुश-हाल रहे हैं हम लोग