जब भी किसी का अह्द-ए-वफ़ा याद आ गया दिल पर पड़ी वो चोट ख़ुदा याद आ गया जब भी सलीब-ओ-दार का क़िस्सा हुआ बयाँ शहर-ए-सितम का मर्द-ए-वफ़ा याद आ गया मुद्दत के बाद उन से मुलाक़ात क्या हुई एक एक हर्फ़ ख़ुद का लिखा याद आ गया क्यों चश्म-ए-नम हैं आप मिरी सम्त देख कर क्या रफ़्ता-रफ़्ता बुझता दिया याद आ गया बज़्म-ए-सुख़न में जब भी चली फ़िक्र-ओ-फ़न की बात नामी के साथ साथ हुमा याद आ गया उस पैकर-ए-जमाल के आते ही बज़्म में कैसा हुआ था हश्र बपा याद आ गया मैं भूल कर भी भूल न पाया वो हादसे मर-मर के कैसे जीना पड़ा याद आ गया दुश्वारी-ए-हयात से जब भी मिली नजात माँ का शफ़ीक़ दस्त-ए-दुआ' याद आ गया छेड़ी है 'शौक़' मीठे तरन्नुम में क्या ग़ज़ल इक शख़्स मुझ को शीरीं-नवा याद आ गया