जब भी तहज़ीब-ए-जुनूँ के साथ दीवाना चला पीछे पीछे साया-ए-गेसू-ए-जानाना चला इल्तिफ़ात-ए-नाज़ का मौक़ा तो आया था मगर हाथ से पत्थर भी उन के बे-नियाज़ाना चला शम-ए-महफ़िल बे-ज़बाँ है वर्ना खुल जाता भरम क्या कहें किस रंग में यारों का अफ़्साना चला रंग-ओ-बू को पाँव छूने की तमन्ना रह गई मेरे क़दमों से लिपट कर यूँ भी वीराना चला ए'तिबार-ए-जल्वा-ए-मंज़िल है उस का नक़्श-ए-पा जो हर इक नक़्श-ए-क़दम से हो के बेगाना चला मुंतज़िर हैं लोग लेकिन चश्म-ए-साक़ी की क़सम मैं तो इक साग़र में पी कर सारा मय-ख़ाना चला हम तो दो दिन साथ भी थे वर्ना ऐ 'जौहर' यहाँ संग और शीशे में कितनी देर याराना चला