काकुल-ओ-रुख़ ही नहीं शाम-ओ-सहर और भी हैं एक तुम ही नहीं अरमान-ए-नज़र और भी हैं दाग़-ए-दिल और भी हैं ज़ख़्म-ए-नज़र और भी हैं शो'ला-ए-गुल के सिवा शो'ला-ए-तर और भी हैं हुस्न वाले तिरी इन नीची निगाहों की क़सम महफ़िल-ए-हुस्न के आदाब-ए-नज़र और भी हैं इक ग़म-ए-दोस्त पे मौक़ूफ़ नहीं बेताबी मरकज़-ए-सिलसिला-ए-दर्द-ए-जिगर और भी हैं मस्जिद-ओ-दैर-ओ-ख़राबात पे कुछ ख़त्म नहीं दिल सलामत तो गुलिस्तान-ए-बशर और भी हैं राहबर थक गए अब देखिए क्या होता है क़ाफ़िले को अभी दरपेश सफ़र और भी हैं रहनुमाओं के निशानात-ए-क़दम ही पे न चल हम-सफ़र शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र और भी हैं ज़ोर-ए-बाज़ू पे नहीं बस दिल-ए-इंसाँ की क़सम चाहे इंसाँ तो रह-ए-फ़त्ह-ओ-ज़फ़र और भी हैं