जब देखिए आँखों में कुछ अश्क मचलते हैं ये कैसे मुसाफ़िर हैं रुकते हैं न चलते हैं एहसास की शिद्दत से कुछ अश्क निकलते हैं ये बर्फ़ के टुकड़े हैं गर्मी में पिघलते हैं ख़ामोश निगाहों को मासूम न समझा कर सोई हुई मौजों में तूफ़ान भी पलते हैं इस ज़ुल्फ़ की ठंडक से इंकार नहीं लेकिन हम लोग हैं दीवाने अंगारों पे चलते हैं ऐ देखने वाले तू जी भर के नज़ारा कर हम भी तिरे कूचे से इक बार निकलते हैं तारीख़-ए-जहाँ कोई लिक्खे भी तो क्या लिक्खे सदियों में तो इंसाँ के किरदार बदलते हैं देखो दिल-ए-'ताबाँ' में गुंजाइशें कितनी हैं इस फ़र्श पे रह कर भी हम अर्श पे चलते हैं