जब ग़म-ए-दोस्त रग-ओ-पै में समा जाता है तब कहीं जा के दुआओं में असर आता है दिल मिरा जब भी शब-ए-तार से घबराता है शम्अ' सी आ के कोई दिल में जला जाता है सोचता हूँ कि तिरा दर्द न खो जाए कहीं अब तो हर ग़म मिरी तन्हाई से टकराता है तुम नहीं वो भी नहीं वो भी नहीं वो भी नहीं कौन है फिर जो ग़रीबों पे सितम ढाता है धूप ही ठीक है इस छाँव से जो गम कर दे कम से कम धूप में साया तो नज़र आता है रात के बाद ही आती है सहर ऐ यारो ग़म जिसे मिलते हैं राहत भी वही पाता है लोग कहते हैं कभी पी के तो देखो 'अख़्तर' गर्मी-ए-मय से हर इक दर्द पिघल जाता है