मिसाल-ए-मौज-ए-नसीम-ए-बहार गुज़री है वो ज़िंदगी जो सर-ए-कू-ए-यार गुज़री है वो इक निगाह जो पैग़ाम-ए-सद-नशात भी है न जाने क्यों वो मिरे दिल पे बार गुज़री है वो तिश्नगी जो सर-ए-मय-कदा निखरना थी वो तिश्नगी भी यूँही बे-बहार गुज़री है अभी अभी तो न आ ऐ ख़याल-ए-आमद-ए-यार अभी अभी तो शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है हमें तो उन की निगाहों का ए'तिबार नहीं जो कह रहे हैं इधर से बहार गुज़री है तमाम उम्र किया उन का इंतिज़ार 'अख़्तर' तमाम उम्र बड़ी बे-क़रार गुज़री है