जब कि इंसान की तक़दीर बिगड़ जाती है जो बनाता है वो तदबीर बिगड़ जाती है ख़त लिखूँ उन को तो तहरीर बिगड़ जाती है कुछ कहूँ मुँह से तो तक़रीर बिगड़ जाती है देख कर मुझ को बल आता है तिरी अबरू में सख़्त जाँ वो हूँ कि शमशीर बिगड़ जाती है सिफ़त-ए-ग़ैर मुझी से है इन्हीं बातों पर मेरी तेरी बुत-ए-बे-पीर बिगड़ जाती है बद-मिज़ाजी की ये सूरत है कि मानी से भी खिंचते खिंचते तिरी तस्वीर बिगड़ जाती है जब से उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का है सौदा सर में मिरी हर ख़्वाब की ता'बीर बिगड़ जाती है मिरी तक़दीर है बरहम तो ब-वक़्त-ए-फ़रियाद नाला-ए-आह की तासीर बिगड़ जाती है हाथ रखता हूँ जो मैं सर पे क़सम खाने को आप की ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर बिगड़ जाती है वस्ल का कर के वो इक़रार मुकर जाते हैं हाए बन बन के ये तक़दीर बिगड़ जाती है क्या हुआ वो जो न दावत में भी आए 'साबिर' ये तो तदबीर है तक़दीर बिगड़ जाती है