जब न तब लड़ने ही को तय्यार हो ख़ुश रहो साहिब अगर बेज़ार हो कहते हैं सब यार से कह हाल-ए-दिल चुप रहूँ क्यों गर लब-ए-इज़हार हो सोओगे यारान-ए-रफ़्ता कब तलक आज रोज़-ए-हश्र है बेदार हो इतने सिन में ये शरारत है ग़ज़ब हो तो लड़के पर बड़े अय्यार हो किस तरह तड़पे न वो तेरी निगाह तीर सी जिस के जिगर के पार हो ख़ाक देखे लाला-ओ-गुल की तरफ़ यार का जो तालिब-ए-दीदार हो कारवान-ए-उम्र का है जल्द कूच वक़्त ग़फ़लत का नहीं बेदार हो गर नहीं मंज़ूर है मरना मिरा इस क़दर क्यों दर-प-ए-आज़ार हो हाल अपना क़ाबिल-ए-गुफ़्तन नहीं कहिए उस से जब कोई ग़म-ख़्वार हो एक आलम ग़र्क़ हो लोहू में गर औज-ए-मौज-ए-दीदा-ए-ख़ूँ-बार हो क्या उरूज-ए-इश्क़ है 'नामी' कि जब दार पर सर होए तब सरदार हो