कोहकन आशिक़ रहा न क़ैस दीवाना रहा अब ज़बान-ज़द-ख़ल्क़ तो अपना ही अफ़्साना रहा देख कर कहते हैं सब अबरू ओ चश्म-ए-मस्त-ए-यार क्यूँकि मेहराब-ए-हरम के नीचे मय-ख़ाना रहा किस तरह से ये नगर ऐ हम-नफ़स आबाद हो बरसों शहर-ए-दिल पे जैश-ए-इश्क़ का थाना रहा नित रहे वाबस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-मह-विशॉं फ़िरक़ा उश्शाक़ में अपना यही बाना रहा गरचे ख़्वाब-ओ-ख़ुर से हिज्राँ में हुए फ़ारिग़ वले शब की बेदारी रही और उन को ग़म खाना रहा ताक़त-ओ-सब्र-ओ-ख़िरद तो दे चुके कब के जवाब हिज्र में अब एक बाक़ी हम को मर जाना रहा दिल उलझता है मिरा जल्दी बता मश्शाता आज देर तक ज़ुल्फ़ों में उस की किस लिए शाना रहा हम तो अक़्ल-ओ-होश के 'नामी' के क़ाइल हैं कि ये उम्र भर हुस्न-ए-परी-रूयों का दीवाना रहा