जब फूल चुभे दिल में तब ख़ार को क्या कहिए मरहम ने किया ज़ख़्मी तलवार को क्या कहिए हमदर्द निगाहों ने दिल और भी तड़पाया दरमाँ ने ग़ज़ब ढाया आज़ार को क्या कहिए इज़्हार-ए-तमन्ना पर मुबहम सी निगाहों के इक़रार को क्या कहिए इंकार को क्या कहिए आलम जो तिरा देखा नासेह भी हुआ शैदा दीवाना तो दीवाना हुशियार को क्या कहिए तदबीर का है दुश्मन तक़दीर का बरहम-ज़न इस दर्द-ए-मोहब्बत के आज़ार को क्या कहिए इस फ़ित्ना-ए-दौराँ की जो बात है आफ़त है रफ़्तार को क्या कहिए गुफ़्तार को क्या कहिए उन शोख़ निगाहों का हर वार क़यामत है इस वार को क्या कहिए उस वार को क्या कहिए घनघोर घटाओं का उन्वान-ए-करम तौबा ज़ाहिद भी बहकता है मय-ख़्वार को क्या कहिए मख़मूर निगाहों की अल्लाह रे मय-रेज़ी हुशियार भी है बे-ख़ुद सरशार को क्या कहिए आज़ार-ए-मोहब्बत की दुनिया है अजब दुनिया अच्छा भी नहीं अच्छा बीमार को क्या कहिए दिल छीन के ग़म बख़्शा सर ले के दिया सौदा इस हुस्न-ओ-मोहब्बत की सरकार को क्या कहिए हर राज़-ए-निहाँ आख़िर ग़म्माज़ से कह डाला ख़ामोश निगाहों की गुफ़्तार को क्या कहिए ता-मै-कदा रिंदों में जो दस्त-ब-दस्त आए उस जुब्बे को क्या कहिए दस्तार को क्या कहिए दुनिया की नज़र में तुम मासूम सही लेकिन पैमान-ए-मोहब्बत से इंकार को क्या कहिए है उस की जवानी पर ख़ुद वज्द जवानी को मय आप बहकती है मय-ख़्वार को क्या कहिए इन इश्वा-तराज़ों का उन मस्त-ख़िरामों का रुकना भी क़यामत है रफ़्तार को क्या कहिए तौबा का भरम रखना ईमाँ था 'सरोश' अपना साक़ी की निगाहों के इसरार को क्या कहिए