जब से दिलबर का आस्ताँ देखा था जो दुश्मन वो मेहरबाँ देखा जिस ने उस दर की ख़ाकसारी की उस गदा को शा-ए-ज़माँ देखा जब से देखा मक़ाम-ए-वहदत को न दोई का कहीं निशाँ देखा क्या कहूँ इश्क़ का मैं लुत्फ़-ओ-करम दिल में दिलबर को बे-गुमाँ देखा जिस को कहते हैं सूरत-ए-इंसाँ ला-मकाँ का वही मकाँ देखा क्या हैं दिलबर के ख़्वाब नाज़-ओ-अदा कहीं ज़ाहिर कहीं निहाँ देखा