जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है रात होती है मगर दिन का यक़ीं होता है उफ़ वो बेदाद इनायत भी तसद्दुक़ जिस पर हाए वो ग़म जो मसर्रत से हसीं होता है हिज्र की रात फ़ुसूँ-कारी-ए-ज़ुल्मत मत पूछ शम्अ जलती है मगर नूर नहीं होता है दूर तक हम ने जो देखा तो ये मालूम हुआ कि वो इंसाँ की रग-ए-जाँ से क़रीं होता है इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए चोट लगती है कहीं दर्द कहीं होता है हम ने देखे हैं वो आलम भी मोहब्बत में 'हफ़ीज़' आस्ताँ ख़ुद जहाँ मुश्ताक़-ए-जबीं होता है