जब तू ही कहीं बे-सर-ओ-सामान पड़ा है बे-कार तिरी चाह में इंसान पड़ा है फिर किस की ज़रूरत मुझे डसती है शब-ओ-रोज़ अब दिल में मिरे कौन सा अरमान पड़ा है दीवार में दर करके बहुत ख़ुश तो हुआ मैं कम्बख़्त अभी रख़्ना-ए-दालान पड़ा है मुझ ज़र्रा-ए-ना-चीज़ की औक़ात ही क्या है क़दमों में तिरे वक़्त का सुल्तान पड़ा है होने दे मुझे वस्ल की साअ'त से बग़ल-गीर लड़ने के लिए हिज्र का मैदान पड़ा है वाक़िफ़ ही नहीं उस की किसी चाल से 'अख़्तर' वो जिस से मिरा वास्ता हर आन पड़ा है