ज़बाँ ख़मोश न रखते तो और क्या करते हम उन से कैसे भला अर्ज़-ए-मुद्दआ करते न दिल को दर्द-ए-मोहब्बत से आश्ना करते न ज़िंदगी के लिए चारागर दवा करते ये कोई भूल नहीं है जफ़ा के बदले हम हमारा फ़र्ज़ यही था कि हम वफ़ा करते न अब बहार से मतलब न गुल्सिताँ से ग़रज़ न हम ख़िज़ाँ से कोई शिकवा-ओ-गिला करते गिला फ़ुज़ूल है 'फ़रमान' दिल-नवाज़ी का वो ऐसे कब थे वफ़ा का सिला अदा करते