ज़माने की बदली नज़र देखते हैं तो हम ख़ुद को सीना-सिपर देखते हैं निगाहों में वो जल्वा-गर हो गए हैं उन्हें देखते हैं जिधर देखते हैं जब आते हैं ख़ुद-आगही पर तो फिर हम न दर देखते हैं न सर देखते हैं चले आओ जल्वा-ब-जल्वा कि हम भी कहाँ तक है ताब-ए-नज़र देखते हैं जो अपनी हक़ीक़त को पहचानते हैं वो 'फ़रमान' की रहगुज़र देखते हैं