ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा सुख़न-कदा मिरी तर्ज़-ए-सुख़न को तरसेगा नए पियाले सही तेरे दौर में साक़ी ये दौर मेरी शराब-ए-कुहन को तरसेगा मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ कर अमाँ न मिली वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा इन्ही के दम से फ़रोज़ाँ हैं मिल्लतों के चराग़ ज़माना सुहबत-ए-अरबाब-ए-फ़न को तरसेगा बदल सको तो बदल दो ये बाग़बाँ वर्ना ये बाग़ साया-ए-सर्व-ओ-समन को तरसेगा हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना इक दिन ज़मीन पानी को सूरज किरन को तरसेगा